Key Highlights
- 1971 भारत-पाक युद्ध के बाद शिमला में हुआ ऐतिहासिक समझौता
- इन्दिरा गांधी और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के बीच हस्ताक्षर
- कश्मीर मुद्दे पर द्विपक्षीय समाधान का आश्वासन
- नियंत्रण रेखा (LoC) की मान्यता
- आलोचनाओं के बावजूद समझौते ने शांति प्रयासों की नींव रखी
शिमला समझौता क्या है?
1971 का भारत-पाक युद्ध केवल एक युद्ध नहीं था, वह इतिहास की दिशा बदलने वाला मोड़ था। इस युद्ध के बाद जब पाकिस्तान के 90,000 से अधिक सैनिक भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर चुके थे, तब भारत ने एक मानवीय और दूरदर्शी निर्णय लिया— शिमला समझौते की पहल।
इस समझौते की शुरुआत कैसे हुई?
28 जून 1972 को पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो अपनी पुत्री बेनज़ीर के साथ शिमला पहुँचे। यह वही भुट्टो थे जो कभी “घास की रोटी खाकर भारत से लड़ाई” की बात करते थे। लेकिन उस समय पाकिस्तान एक हारा हुआ राष्ट्र था आर्थिक, राजनैतिक और सैन्य मोर्चों पर।
भुट्टो के पास खोने के लिए कुछ नहीं था, लेकिन भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सामने एक ऐतिहासिक अवसर था। बातचीत के कई दौर चले और अंततः 2 जुलाई 1972 को, एक महत्वपूर्ण सन्धि पर हस्ताक्षर हुए शिमला समझौता।
शिमला समझौते के प्रमुख बिंदु
- सभी विवादों को आपसी बातचीत से सुलझाने का वादा: विशेष रूप से कश्मीर का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नहीं उठाया जाएगा।
- बल प्रयोग न करने का वचन: दोनों देश शांति बनाए रखेंगे और एक-दूसरे की संप्रभुता का सम्मान करेंगे।
- नियंत्रण रेखा (LoC) की स्थापना: 17 दिसम्बर 1971 को युद्ध-विराम की स्थिति को स्वीकार कर LoC की रेखा तय की गई।
- संचार और व्यापार पुनः शुरू करने का निर्णय: दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और आर्थिक सहयोग की नींव रखी गई।
- सेनाओं की वापसी: युद्ध के बाद की स्थिति से सेनाएं अपने अपने क्षेत्रों में लौट जाएंगी।
समझौते की आलोचना क्यों होती है?
भारत में कुछ वर्गों ने इसे एकतरफा समर्पण माना क्योंकि भारतीय सेना ने जो क्षेत्र युद्ध में जीते थे, उन्हें वापस करना पड़ा। लेकिन यदि हम इसे एक राजनयिक जीत मानें, तो यह कह सकते हैं कि भारत ने विश्व समुदाय के समक्ष शांति प्रिय राष्ट्र की छवि प्रस्तुत की।
पाकिस्तान की वादाखिलाफी और सबक
शिमला समझौते में साफ़ कहा गया था कि कश्मीर मुद्दा केवल द्विपक्षीय बातचीत से सुलझाया जाएगा। लेकिन पाकिस्तान ने बार-बार इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाया, और 1999 के कारगिल युद्ध ने साफ कर दिया कि पाकिस्तान को लिखित समझौतों की परवाह नहीं।
एक पत्रकार के तौर पर जब मैंने शिमला की उस ऐतिहासिक इमारत को देखा जहाँ यह समझौता हुआ, तो एक सवाल बार-बार मन में आया क्या यह समझौता पाकिस्तान के साथ शांति के लिए सही रास्ता था? शायद हां, लेकिन शांति के लिए दोनों पक्षों का ईमानदार होना भी ज़रूरी है।
आज जब भारत और पाकिस्तान के रिश्ते फिर से तनावपूर्ण हैं, शिमला समझौता हमें यह सिखाता है कि राजनीति में समझदारी, धैर्य और दूरदृष्टि सबसे बड़ी ताकत है। समझौतों का मूल्य केवल कागज पर नहीं, नीयत में होता है।
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