श्रीरुद्राष्टकम्, भगवान शिव की स्तुति का एक प्रमुख स्तोत्र है जिसे गोस्वामी तुलसीदास ने रचा था। यह स्तोत्र शिवजी की महिमा का वर्णन करता है और उन्हें नमस्कार करने की भावना को व्यक्त करता है। श्रीरुद्राष्टकम् में शिवजी की महानता, स्वरूप, और उनकी करुणा का वर्णन किया गया है। यह स्तोत्र शिवभक्तों के बीच बहुत लोकप्रिय है और इसे श्रद्धा एवं भक्ति के साथ पढ़ा जाता है।
श्रीरुद्राष्टकम् का महत्त्व
श्रीरुद्राष्टकम् का पाठ विशेष रूप से महाशिवरात्रि और श्रावण मास में किया जाता है। यह माना जाता है कि इसका नियमित पाठ करने से भक्त को शिवजी की कृपा प्राप्त होती है और वह जीवन के संकटों से मुक्त हो जाता है। इस स्तोत्र में शिवजी के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों का वर्णन है, जो उनकी अद्वितीयता और महिमा को प्रकट करता है।
श्रीरुद्राष्टकम् के श्लोक और उनके अर्थ | Shiv Rudrashtakam Stotram Lyrics
नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम् ॥
अर्थ: मैं ईशान (शिव) को नमस्कार करता हूँ, जो निर्वाणस्वरूप, सर्वशक्तिमान, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरूप हैं। जो स्वभाव से ही निर्गुण, निर्विकल्प और निरीह हैं, जो चिदाकाश में निवास करते हैं और सर्वत्र व्याप्त हैं।
निराकार मोंकार मूलं तुरीयं, गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालुं, गुणागार संसार पारं नतोऽहम् ॥
अर्थ: जो निराकार हैं, ओंकार के मूल और तुरीय अवस्था में स्थित हैं, जो वाणी, ज्ञान और इंद्रियों से परे हैं, जो गिरिश (शिव) हैं। जो महाकाल, काल के भी काल और कृपालु हैं, गुणों के भंडार और संसार के पार हैं, उन्हें मैं नमन करता हूँ।
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥
अर्थ: जिनका रूप हिमालय की भांति उज्ज्वल और गंभीर है, जो मनोभूत (कामदेव) की करोड़ों प्रभा (तेज) से संपन्न हैं। जिनके मस्तक पर कल्लोलिनी (लहराती हुई) सुंदर गंगा विराजमान है, जिनके ललाट पर चंद्रमा और गले में सर्प सुशोभित हैं।
चलत्कुण्डलं शुभ्र नेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥
अर्थ: मैं उन प्रिय शंकर (भगवान शिव) की भक्ति करता हूँ जिनके कानों में झूमते हुए कुंडल शोभित हो रहे हैं। जिनके नेत्र श्वेत और विशाल हैं, जिनका मुख प्रसन्न है और गला नीलवर्ण का है। वे दयालु हैं, सिंह की खाल का वस्त्र धारण किए हुए हैं, और जिनके गले में मुण्डमाला (खोपड़ियों की माला) सुशोभित है। वे सर्वनियंता और सर्वश्रेष्ठ हैं।
प्रचण्डं प्रकष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम् ।
त्रयशूल निर्मूलनं शूल पाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम् ॥
अर्थ: मैं उन भगवान शिव का भजन करता हूँ, जो अत्यंत तेजस्वी, परम उत्कृष्ट, अति निपुण और सर्वोच्च देव हैं। वे अविनाशी और संपूर्ण हैं, जन्म-मृत्यु के चक्र से परे हैं और करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशमान हैं। वे त्रिशूल के द्वारा सभी दुःखों का नाश करते हैं और त्रिशूल धारण करते हैं। माता भवानी के पति, जो भक्ति से प्राप्त होते हैं, मैं उन्हें भजता हूँ।
यह श्लोक भगवान शिव की महिमा और उनकी महानता को दर्शाता है, जिनकी भक्ति से सारे कष्टों का निवारण होता है और जिन्हें भक्ति से प्राप्त किया जा सकता है।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सच्चिनान्द दाता पुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥
अर्थ: इस श्लोक में भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया गया है, जो कलाओं से परे, शुभकारी, संहारक, सच्चिदानंद स्वरूप, त्रिपुरासुर के विजेता, शुद्ध चेतना और आनंद के समूह, मोह को दूर करने वाले हैं। शिवजी से प्रार्थना की जाती है कि वे कृपा करें और भक्त को अपने आशीर्वाद से समृद्ध करें।
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावद् सुखं शांति सन्ताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वं भूताधि वासं ॥
अर्थ: इस श्लोक में यह कहा गया है कि जब तक मनुष्य शिवजी के चरणकमलों की भक्ति नहीं करते, तब तक उन्हें न तो इस जीवन में और न ही परलोक में सुख, शांति और संताप का नाश प्राप्त होता है। इसलिए, हे शिवजी, जो सभी प्राणियों के निवास हैं, कृपया प्रसन्न हों और अपनी कृपा प्रदान करें।
न जानामि योगं जपं नैव पूजा, न तोऽहम् सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं, प्रभोपाहि आपन्नामामीश शम्भो ॥
अर्थ: मैं न तो योग जानता हूँ, न जप, न ही पूजा। हे शम्भू, मैं सदा-सर्वदा आपका नहीं हूँ। मैं जरा (बुढ़ापा) और जन्म के दुःखों से जल रहा हूँ। हे प्रभु, मुझे इन दुखों से मुक्त करें। हे ईशान, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
इस श्लोक में भक्त अपनी अज्ञानता और असमर्थता को व्यक्त करते हुए भगवान शिव से सहायता की प्रार्थना कर रहा है। वह कहता है कि उसे न तो योग का ज्ञान है, न जप करने की क्षमता है, न ही पूजा की विधि का ज्ञान है। इस असमर्थता के बावजूद, वह भगवान शिव से निवेदन करता है कि वे उसकी प्रार्थना स्वीकार करें और उसे उसके कष्टों से मुक्ति दिलाएं।
भक्त अपने जीवन के कष्टों – बुढ़ापे और जन्म के दुखों से त्रस्त है और भगवान शिव से प्रार्थना कर रहा है कि वे उसे इन दुखों से मुक्त करें। यह श्लोक भगवान शिव के प्रति भक्त की समर्पण भावना और उनकी कृपा की प्रार्थना को दर्शाता है।
रूद्राष्टकं इदं प्रोक्तं विप्रेण हर्षोतये
ये पठन्ति नरा भक्तयां तेषां शंभो प्रसीदति।।
अर्थ: श्लोक का सार यह है कि रूद्राष्टकम् का पाठ करने से व्यक्ति भगवान शिव की कृपा प्राप्त करता है। यह स्तोत्र भगवान शिव की महिमा और उनके प्रति भक्ति को व्यक्त करता है। इसका नियमित पाठ करने वाले भक्तों पर शिवजी की कृपा बरसती है और वे उनके जीवन में शांति, सुख और समृद्धि प्रदान करते हैं।
यह श्लोक इस बात को भी इंगित करता है कि धार्मिक काव्य और स्तुति का पाठ न केवल आध्यात्मिक उन्नति के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भगवान की प्रसन्नता और कृपा प्राप्त करने का एक प्रभावी माध्यम भी है।
॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ॥
श्रीरुद्राष्टकम् का पाठ करने के लाभ
- मानसिक शांति: इसका नियमित पाठ मन को शांति प्रदान करता है और तनाव को दूर करता है।
- आध्यात्मिक उन्नति: यह आध्यात्मिक उन्नति और शिवजी की कृपा प्राप्त करने में सहायक होता है।
- रोग और कष्टों से मुक्ति: श्रीरुद्राष्टकम् का पाठ करने से व्यक्ति के जीवन से रोग और कष्टों का निवारण होता है।
श्रीरुद्राष्टकम् भगवान शिव की भक्ति का एक अद्वितीय स्तोत्र है जो भक्तों को भगवान शिव के प्रति अपनी भक्ति को व्यक्त करने का एक अद्भुत माध्यम प्रदान करता है। इसका नियमित पाठ करने से जीवन में शांति, समृद्धि और मुक्ति की प्राप्ति होती है।
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