भारत में आरक्षण: लाभ, चुनौतियाँ और सुधार की दिशा

Reservation in India
भारत में आरक्षण: लाभ, चुनौतियाँ और सुधार की दिशा
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आरक्षण की व्यवस्था भारत में एक महत्वपूर्ण सामाजिक नीति के रूप में उभरकर सामने आई है। यह एक ऐसी नीति है जिसने दशकों से देश के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक ढाँचे को प्रभावित किया है। आरक्षण का मुख्य उद्देश्य सामाजिक असमानता को कम करना और वंचित वर्गों को मुख्यधारा में लाना है। लेकिन इस व्यवस्था के पक्ष और विपक्ष में बहसें लगातार जारी हैं। इस लेख में, हम आरक्षण की अवधारणा, इसके इतिहास, लाभ, चुनौतियाँ और इसके सुधार की संभावनाओं पर एक गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत करेंगे।

आरक्षण की अवधारणा और इतिहास

भारत में आरक्षण की अवधारणा का उद्भव ब्रिटिश काल से होता है। 1932 में, पूना समझौते के तहत, दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। स्वतंत्रता के बाद, भारत के संविधान में अनुसूचित जातियों (SC), अनुसूचित जनजातियों (ST), और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। इसके पीछे का मुख्य उद्देश्य उन समुदायों को सामाजिक और शैक्षिक रूप से सशक्त बनाना था जो सदियों से हाशिये पर थे।

आरक्षण का मौजूदा स्वरूप

वर्तमान में, भारत में आरक्षण की व्यवस्था मुख्यतः चार क्षेत्रों में लागू होती है:

  1. शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश: अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़ा वर्ग और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिए आरक्षण।
  2. सरकारी नौकरियों में आरक्षण: सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में विभिन्न आरक्षित वर्गों के लिए स्थान सुरक्षित किए गए हैं।
  3. विधानसभा और संसद में आरक्षण: अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए विशेष सीटें आरक्षित हैं।
  4. प्रमोशन में आरक्षण: सरकारी नौकरियों में प्रमोशन के दौरान भी आरक्षण का प्रावधान है।

आरक्षण के लाभ

आरक्षण के कई फायदे हैं, विशेषकर उन वर्गों के लिए जो सदियों से सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े रहे हैं:

  • सामाजिक न्याय: आरक्षण ने समाज के वंचित वर्गों को सामाजिक न्याय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इससे इन वर्गों को समाज में समान अवसर मिलने लगे हैं।
  • शैक्षिक अवसर: शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण के माध्यम से अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के छात्रों को उच्च शिक्षा के अवसर प्राप्त हुए हैं।
  • आर्थिक उत्थान: सरकारी नौकरियों में आरक्षण के कारण इन वर्गों के आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है।
  • राजनीतिक प्रतिनिधित्व: विधानसभा और संसद में आरक्षित सीटों के कारण इन वर्गों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व बढ़ा है।

आरक्षण की चुनौतियाँ और विवाद

आरक्षण की व्यवस्था के बावजूद इसके कुछ दुष्प्रभाव और चुनौतियाँ भी सामने आई हैं:

  • जातिवाद की पुनरावृत्ति: आरक्षण की व्यवस्था ने कुछ हद तक जातिवाद को और बढ़ावा दिया है। कुछ लोग इसे समाज में नई तरह की असमानता के रूप में देखते हैं।
  • कुशलता और मेरिट: कुछ लोगों का मानना है कि आरक्षण के कारण सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में मेरिट का स्तर गिरा है। इससे योग्य उम्मीदवारों के साथ अन्याय हो सकता है।
  • वंचित वर्गों के भीतर असमानता: आरक्षण का लाभ उठाने में कुछ विशेष वर्ग के लोग अधिक सफल हो रहे हैं, जिससे अन्य वंचित वर्गों के भीतर असमानता बढ़ रही है।
  • आरक्षण की सीमा: वर्तमान में आरक्षण की सीमा 50% तय की गई है। इसे बढ़ाने की माँग लगातार उठती रही है, जिससे समाज में तनाव पैदा हो सकता है।

आरक्षण में सुधार की संभावनाएँ

आरक्षण की व्यवस्था को और अधिक प्रभावी और न्यायसंगत बनाने के लिए सुधार की दिशा में कुछ कदम उठाए जा सकते हैं:

  1. सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर आरक्षण: जाति के अलावा, आरक्षण को आर्थिक स्थिति के आधार पर भी लागू किया जा सकता है। इससे समाज के सभी वर्गों को समान अवसर मिल सकते हैं।
  2. आरक्षण का पुनः मूल्यांकन: आरक्षण की वर्तमान स्थिति का समय-समय पर पुनः मूल्यांकन किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह केवल उन लोगों तक सीमित न रहे जो पहले से ही इसका लाभ उठा चुके हैं।
  3. शिक्षा और स्किल डेवलपमेंट पर ध्यान: आरक्षण के साथ-साथ, वंचित वर्गों के लिए शिक्षा और स्किल डेवलपमेंट के कार्यक्रमों को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए, ताकि वे प्रतिस्पर्धा में और अधिक सक्षम हो सकें।
  4. पारदर्शिता और समीक्षा: आरक्षण की प्रक्रिया में पारदर्शिता और निष्पक्षता बनाए रखने के लिए नियमित समीक्षा और मॉनिटरिंग की जानी चाहिए।

संविधान में आरक्षण के बारे में क्या लिखा है?

Original Signatures on the Constitution of India by the members

भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान मुख्य रूप से सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए समानता सुनिश्चित करने और उनके अधिकारों की रक्षा करने के उद्देश्य से किया गया है। आरक्षण से संबंधित प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित अनुच्छेदों में शामिल हैं:

1. अनुच्छेद 15(4) और 15(5)

अनुच्छेद 15(4): यह प्रावधान राज्य को अधिकार देता है कि वह सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान कर सके। इस अनुच्छेद के अंतर्गत, शिक्षा के क्षेत्र में इन वर्गों को आरक्षण का लाभ प्रदान किया गया है।

अनुच्छेद 15(5): 93वें संवैधानिक संशोधन के बाद, इस अनुच्छेद को जोड़ा गया, जो राज्य और निजी शिक्षण संस्थानों (जिन्हें सरकारी सहायता मिलती है या नहीं) में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान करता है। हालांकि, यह अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों पर लागू नहीं होता है।

2. अनुच्छेद 16(4) और 16(4A)

अनुच्छेद 16(4): यह प्रावधान सरकारी नौकरियों में नियुक्तियों और पदों के लिए पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करता है। इस अनुच्छेद के तहत, राज्य यह सुनिश्चित कर सकता है कि नौकरियों में ऐसे वर्गों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो, जिनका प्रतिनिधित्व सामान्यत: कम है।

अनुच्छेद 16(4A): 77वें संवैधानिक संशोधन के बाद जोड़ा गया, यह प्रावधान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में भी आरक्षण का प्रावधान करता है।

3. अनुच्छेद 46

अनुच्छेद 46: यह राज्य को निर्देश देता है कि वह अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक और आर्थिक हितों की विशेष देखभाल करे, और उन्हें सामाजिक अन्याय और शोषण से बचाए।

4. अनुच्छेद 334

अनुच्छेद 334: संविधान सभा ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए संसद और विधानसभा में आरक्षित सीटों का प्रावधान किया। पहले यह प्रावधान 10 वर्षों के लिए था, लेकिन समय-समय पर इसे संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से बढ़ाया गया है।

5. अनुच्छेद 340

अनुच्छेद 340: यह प्रावधान पिछड़े वर्गों की स्थिति की जाँच के लिए एक आयोग की स्थापना का प्रावधान करता है। इसके अंतर्गत, काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग का गठन किया गया था, जिसने अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की पहचान और उनके लिए आरक्षण की सिफारिश की।

6. 10% आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) का आरक्षण

103वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2019 के तहत, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिए 10% आरक्षण का प्रावधान किया गया। यह आरक्षण उन वर्गों के लिए है जो न तो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, या अन्य पिछड़ा वर्ग में आते हैं और आर्थिक आधार पर पिछड़े हुए हैं।

भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान समाज के उन वर्गों के लिए किया गया है जो ऐतिहासिक रूप से सामाजिक और शैक्षिक दृष्टिकोण से पिछड़े हुए हैं। इसका मुख्य उद्देश्य समानता, सामाजिक न्याय और समावेशिता को सुनिश्चित करना है, ताकि समाज के सभी वर्गों को समान अवसर मिल सकें और वे मुख्यधारा में शामिल हो सकें।

भारत में जाति आरक्षण कौन लाया?

भारत में जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था का आरंभ ब्रिटिश शासनकाल के दौरान हुआ था, लेकिन इसे व्यवस्थित रूप से लागू करने का श्रेय डॉ. भीमराव आंबेडकर और भारतीय संविधान सभा को जाता है। आइए इस व्यवस्था के विकास के कुछ प्रमुख चरणों पर नज़र डालते हैं:

1. ब्रिटिश शासन के दौरान आरंभिक कदम:

  • पश्चिमी भारत में प्रथमत: (19वीं सदी): ब्रिटिश शासन के दौरान, सबसे पहले प्रिंसली स्टेट्स (जैसे कि कोल्हापुर) में कुछ जातियों के लिए शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की शुरुआत की गई। छत्रपति शाहूजी महाराज ने 1902 में मराठा समुदाय के लिए आरक्षण की व्यवस्था की, जिसे पहले प्रामाणिक जाति-आधारित आरक्षण के रूप में देखा जाता है।

  • पूना पैक्ट (1932): महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर के बीच हुए इस समझौते ने दलितों (जो उस समय ‘अछूत’ माने जाते थे) के लिए विधानसभा और लोकसभा में आरक्षित सीटों की व्यवस्था की। इसके तहत, दलितों को सामान्य चुनावों में मताधिकार का अधिकार दिया गया, लेकिन कुछ सीटें उनके लिए आरक्षित की गईं। इस समझौते ने आरक्षण की नींव रखी।

2. संविधान सभा और भारतीय संविधान में आरक्षण:

  • डॉ. भीमराव आंबेडकर का योगदान: डॉ. आंबेडकर, जो संविधान सभा के ड्राफ्टिंग कमिटी के अध्यक्ष थे, ने अनुसूचित जातियों (SC), अनुसूचित जनजातियों (ST), और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया। संविधान के अनुच्छेद 15, 16, और अन्य संबंधित अनुच्छेदों में आरक्षण का विस्तृत प्रावधान किया गया।

  • संविधान का अंगीकरण (1950): जब 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ, तब अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों, शिक्षण संस्थानों, और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण की व्यवस्था की गई। इस आरक्षण की मियाद 10 वर्षों के लिए तय की गई थी, लेकिन इसे कई बार बढ़ाया गया है।

3. अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण:

  • काका कालेलकर आयोग (1953): यह आयोग अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की पहचान और उनकी स्थिति का आकलन करने के लिए बनाया गया था। हालांकि, इसकी सिफारिशों को उस समय सरकार ने लागू नहीं किया।

  • मंडल आयोग (1979): बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में इस आयोग ने 1980 में अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें OBC के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 27% आरक्षण की सिफारिश की गई। 1990 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने इस सिफारिश को लागू किया, जिसके परिणामस्वरूप देश में व्यापक सामाजिक और राजनीतिक बदलाव आए।

भारत में जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था का आरंभ ब्रिटिश काल से हुआ, लेकिन इसे व्यापक रूप से लागू करने का श्रेय डॉ. भीमराव आंबेडकर और संविधान सभा को जाता है। इस व्यवस्था का उद्देश्य समाज के उन वर्गों को समान अवसर प्रदान करना था, जो सदियों से सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए थे। आरक्षण का यह ढाँचा आज भी भारत में सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण नीति बनी हुई है।

निष्कर्ष

भारत में आरक्षण एक महत्वपूर्ण सामाजिक नीति है जिसने कई वंचित वर्गों को मुख्यधारा में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन इसके साथ-साथ, इसे और अधिक न्यायसंगत और प्रभावी बनाने की जरूरत है। आरक्षण के लाभों और चुनौतियों को समझते हुए, हमें इस नीति को और अधिक बेहतर बनाने के लिए सुधारात्मक कदम उठाने चाहिए ताकि यह समाज के सभी वर्गों के लिए फायदेमंद साबित हो सके।

आरक्षण का मुद्दा केवल राजनीतिक बहस का विषय नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे एक सामाजिक न्याय के उपकरण के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके माध्यम से ही हम एक अधिक समान और न्यायसंगत समाज का निर्माण कर सकते हैं।

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