सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अंतरिम जमानत दी, जिससे मार्च में प्रवर्तन निदेशालय द्वारा उनकी गिरफ्तारी की वैधता और आवश्यकता पर सवाल उठाए गए। यह मामला शराब नीति घोटाले से जुड़ा है और इसमें केजरीवाल को मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और दीपांकर दत्ता की बेंच ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की गिरफ्तारी शक्ति पर कुछ प्रश्नों को एक बड़ी बेंच के पास भेजा है।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल केजरीवाल के लिए बल्कि देश के कानून और न्याय प्रणाली के लिए भी महत्वपूर्ण है। यह निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि गिरफ्तारी की शक्ति अदालतों की समीक्षा से मुक्त नहीं है। अदालत ने कहा, “यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो विधानमंडल द्वारा निर्धारित प्रतिबंध, वास्तव में और व्यवहार में, केवल एक औपचारिक अभ्यास तक सीमित हो जाएंगे।”
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि गिरफ्तारी के आधार लिखित में होने चाहिए और अधिकारी को गिरफ्तारी करने से पहले उन सभी सबूतों पर ध्यान देना चाहिए जो आरोपी को निर्दोष साबित करते हैं। गिरफ्तारी का निर्णय कानून के अनुसार होना चाहिए और यह अधिकारी की मनमानी पर नहीं छोड़ना चाहिए।
अदालत ने कई बार इस बात पर जोर दिया कि गिरफ्तारी की शक्ति का उपयोग सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए ताकि व्यक्तियों के जीवन और स्वतंत्रता पर गंभीर प्रभाव न पड़े। अदालत ने कहा, “इस शक्ति का उपयोग आवश्यक मामलों तक ही सीमित होना चाहिए और इसे सामान्य रूप से या लापरवाही से नहीं किया जाना चाहिए।”
केजरीवाल की गिरफ्तारी और जमानत को लेकर राजनीतिक और कानूनी हलकों में कई तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं। आम आदमी पार्टी के समर्थकों ने उनकी रिहाई का जश्न मनाया, जबकि विपक्षी दलों ने इस मुद्दे पर विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए। तृणमूल कांग्रेस, सीपीएम और कांग्रेस ने इस फैसले का स्वागत किया और इसे न्याय की जीत बताया।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्याय प्रणाली के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश है कि कानूनी प्रक्रियाओं का पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिए और किसी भी अधिकारी की मनमानी को रोका जाना चाहिए। यह निर्णय न केवल अरविंद केजरीवाल के लिए बल्कि सभी नागरिकों के लिए न्याय की उम्मीद को बढ़ाता है।