आइटम सॉन्ग्स का भारतीय सिनेमा में खास स्थान है। 1950 के दशक से लेकर आज तक ये गाने न केवल फिल्मों में आकर्षण का केंद्र रहे हैं, बल्कि फिल्म की सफलता में भी अहम भूमिका निभाते हैं। इनमें से कई गाने अपनी धुनों, बोल और नृत्य के चलते आइकॉनिक बन गए हैं। इस लेख में हम जानेंगे कि आइटम सॉन्ग्स कैसे समय के साथ बदले और उनके विकास ने भारतीय सिनेमा पर क्या प्रभाव डाला है।
आइटम सॉन्ग्स का शुरुआती दौर
आइटम सॉन्ग्स की शुरुआत 1950 के दशक से मानी जाती है। उस समय इन गानों का उद्देश्य मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाना भी होता था। इस दौर में हेलेन जैसे कलाकारों ने अपने नृत्य और अदाओं से सिनेमा को नया रंग दिया। “मेरा नाम चिन चिन चू” (Howrah Bridge, 1958) और “मेहबूबा मेहबूबा” (Sholay, 1975) जैसे गानों ने दर्शकों के दिलों में खास जगह बनाई। उस समय इन गानों में एक खास प्रकार की मासूमियत और नयापन था, जिसमें ग्लैमर तो था लेकिन अश्लीलता का अभाव था।
1990 के दशक में बदलाव की बयार
1990 का दशक आते-आते आइटम सॉन्ग्स में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला। “चइयां चइयां” (Dil Se, 1998) जैसे गानों ने न केवल अपनी शानदार धुन और कोरियोग्राफी से लोगों को मोहित किया, बल्कि ग्लैमर और स्टाइल को भी एक नया आयाम दिया। इस गाने में शाहरुख खान और मलाइका अरोड़ा ने ट्रेन के ऊपर नृत्य करके दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। इसके बाद से आइटम सॉन्ग्स का ट्रेंड और अधिक बढ़ता गया।
2000 के दशक में आइटम सॉन्ग्स का उभार
2000 के दशक में आइटम सॉन्ग्स का स्वरूप काफी बदल गया। ग्लैमर और सेक्सी मूव्स के साथ-साथ ये गाने फिल्मों की मार्केटिंग का भी बड़ा हथियार बन गए। “मुन्नी बदनाम हुई” (Dabangg, 2010) और “शीला की जवानी” (Tees Maar Khan, 2010) जैसे गानों ने फिल्म की रिलीज से पहले ही उसे चर्चा में ला दिया। इन गानों ने यह साबित कर दिया कि एक हिट आइटम सॉन्ग फिल्म की सफलता की संभावना को बढ़ा सकता है।
संगीतकार ललित पंडित का कहना है, “आजकल फिल्मों में एक हिट आइटम सॉन्ग का होना बहुत ज़रूरी हो गया है। यदि गाना हिट होता है, तो फिल्म को 50 प्रतिशत तक सुरक्षित होने का मौका मिल जाता है।” उन्होंने आगे कहा कि कई बार निर्माता फिल्म के बनने के बाद भी आइटम सॉन्ग की मांग करते हैं ताकि उसे फिल्म के प्रमोशन में इस्तेमाल किया जा सके।
आइटम सॉन्ग्स की वर्तमान स्थिति
वर्तमान में आइटम सॉन्ग्स को मार्केटिंग टूल के रूप में देखा जाता है। इन गानों को अक्सर फिल्म के शुरुआत या अंत में डाला जाता है ताकि दर्शकों को अंत तक जोड़े रखा जा सके। उदाहरण के लिए, “तौबा तौबा” (Vicky Kaushal), “ठुमकेश्वरी” (Bhediya), और “भूल भुलैया 2” का टाइटल ट्रैक इस बात के सटीक उदाहरण हैं।
निर्माता गिरीश जौहर का कहना है कि इन गानों का उपयोग सिर्फ एक “साइड डिश” के रूप में नहीं किया जाता, बल्कि कभी-कभी ये कहानी का हिस्सा भी होते हैं। “आज की रात” (Stree 2) का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, “आइटम सॉन्ग्स आज भी फिल्मों का हिस्सा हैं और इनका उपयोग न केवल फिल्म को बढ़ावा देने के लिए होता है, बल्कि ये दर्शकों के साथ भावनात्मक जुड़ाव भी बनाते हैं।”
आइटम सॉन्ग्स का संगीत और दृश्यात्मक बदलाव
आइटम सॉन्ग्स में सिर्फ मार्केटिंग या मनोरंजन का पहलू ही नहीं बदला है, बल्कि इनके संगीत, बोल और दृश्यात्मकता में भी बड़े बदलाव आए हैं। पहले जहाँ गुलज़ार जैसे गीतकार के बोलों में कविता और रोमांटिकता होती थी, वहीं आजकल के गानों में बोल्डनेस और ग्लैमर का जोर होता है। “चिकनी चमेली” (Agneepath, 2012) जैसे गाने में कैटरीना कैफ ने एक बोल्ड और आत्मविश्वासी महिला के रूप में अपनी छवि बनाई, जो अपनी यौनिकता को खुलकर व्यक्त करती है।
1951 में राज कपूर की फिल्म ‘आवारा’ में कुकू मोरे का “एक दो तीन आजा मौसम है रंगीन” गाना था, जो उस समय की खास पहचान बना। वहीं, 1990 के दशक में “चइयां चइयां” ने दर्शकों को नया अनुभव दिया।
आइटम बॉय का उदय
वर्षों तक आइटम सॉन्ग्स में केवल महिलाओं को ही दिखाया जाता था, लेकिन समय के साथ पुरुष अभिनेता भी आइटम सॉन्ग्स में दिखाई देने लगे। अभिषेक बच्चन ने “कजरारे” और “राइट हियर राइट नाउ” जैसे गानों के साथ आइटम बॉय की छवि बनाई। इसके बाद आमिर खान ने “I Hate You” (Delhi Belly) में देसी एल्विस प्रेस्ली के रूप में अपने अभिनय से दर्शकों को लुभाया।
रीमिक्स और रिक्रिएशन का ट्रेंड
आजकल पुराने गानों को रीमिक्स करके नए रूप में पेश किया जा रहा है, और इन्हें भी आइटम सॉन्ग्स की तरह देखा जाता है। “दिलबर” और “आँख मारे” जैसे गाने इसके प्रमुख उदाहरण हैं। निर्माता भूषण कुमार ने इस पर कहा, “यदि कोई गाना काम कर रहा है और दर्शक उसे पसंद कर रहे हैं, तो इसे बंद क्यों किया जाए? अगर आपको यह पसंद नहीं है, तो मत देखिए।”
हालांकि, संगीतकार ललित पंडित का कहना है कि आइटम सॉन्ग्स की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इनका असर केवल कुछ दिनों तक ही रहता है। “मुन्नी बदनाम हुई” जैसे गाने ने आते ही धमाल मचाया, लेकिन अब उस पर कोई चर्चा नहीं होती। इसकी तुलना “दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे” या “कुछ कुछ होता है” के गानों से नहीं की जा सकती, जिनका आज भी असर बरकरार है।
आइटम सॉन्ग्स का भविष्य
हालांकि आइटम सॉन्ग्स का स्वरूप समय के साथ बदलता रहा है, लेकिन कई फिल्म निर्माता अभी भी इस कला को सहेजने में लगे हुए हैं। संजय लीला भंसाली और मोहित सूरी जैसे निर्देशक फिल्मों के लिए खास गाने बनवाते हैं जो फिल्म की कहानी और चरित्र के साथ मेल खाते हैं।
जैसा कि गीतकार जावेद अख्तर ने एक बार कहा था, “आइटम सॉन्ग्स का फिल्मों से कोई सीधा संबंध नहीं होता। अगर आइटम सॉन्ग्स अवास्तविक लगते हैं, तो बैकग्राउंड म्यूजिक भी अवास्तविक ही है।”
वर्तमान में “बीड़ी जलइले” (Omkara), “नमक इश्क का” और “चइयां चइयां” जैसे गानों की धुन और बोलियों में आज भी वह जादू है, जो किसी भी व्यक्ति को मुस्कुराने पर मजबूर कर सकते हैं।
आइटम सॉन्ग्स का सफर भारतीय सिनेमा के बदलते दौर का सटीक उदाहरण है। जहाँ पहले ये गाने फिल्मों की कहानी को आगे बढ़ाते थे, वहीं आजकल इनका उपयोग फिल्म की मार्केटिंग और मनोरंजन के लिए किया जाता है। फिर भी, आइटम सॉन्ग्स की चमक और उनकी पहचान कभी कम नहीं होगी।